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यू॒यं र॒यिं म॑रुतः स्पा॒र्हवी॑रं यू॒यमृषि॑मवथ॒ साम॑विप्रम्। यू॒यमर्व॑न्तं भर॒ताय॒ वाजं॑ यू॒यं ध॑त्थ॒ राजा॑नं श्रुष्टि॒मन्त॑म् ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yūyaṁ rayim marutaḥ spārhavīraṁ yūyam ṛṣim avatha sāmavipram | yūyam arvantam bharatāya vājaṁ yūyaṁ dhattha rājānaṁ śruṣṭimantam ||

पद पाठ

यू॒यम्। र॒यिम्। म॒रु॒तः॒। स्पा॒र्हऽवी॑रम्। यू॒यम्। ऋषि॑म्। अ॒व॒थ॒। साम॑ऽविप्रम्। यू॒यम्। अर्व॑न्तम्। भ॒र॒ताय॑। वाज॑म्। यू॒यम्। ध॒त्थ॒। राजा॑नम्। श्रु॒ष्टि॒ऽमन्त॑म् ॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:54» मन्त्र:14 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजादिकों से कौन-कौन रक्षा पाने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) पुरुषार्थी मनुष्यो ! (यूयम्) आप लोग (स्पार्हवीरम्) अभिकाङ्क्षित वीर जिसमें उस (रयिम्) लक्ष्मी की (अवथ) रक्षा कीजिये और (यूयम्) आप लोग (सामविप्रम्) सामों में बुद्धिमान् (ऋषिम्) वेदार्थ के जाननेवाले की रक्षा कीजिये और (यूयम्) आप लोग (भरताय) धारण और पोषण के लिये (अर्वन्तम्) प्राप्त होते हुए (वाजम्) वेग, अन्न और विज्ञान आदि को (धत्थ) धारण करो और (यूयम्) आप लोग (श्रुष्टिमन्तम्) अच्छा क्षिप्रकरण जिसमें उस (राजानम्) न्याय और विनय से प्रकाशमान को धारण कीजिये ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम सहाय से लक्ष्मी, विद्वान्, सेना और राजा को धारण करें ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजादिभिः के के रक्षणीया इत्याह ॥

अन्वय:

हे मरुतो ! यूयं स्पार्हवीरं रयिमवथ यूयं सामविप्रमृषिमवथ यूयं भरतायार्वन्तं वाजं धत्थ यूयं श्रुष्टिमन्तं राजानं धत्थ ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यूयम्) (रयिम्) श्रियम् (मरुतः) पुरुषार्थिनो मनुष्याः (स्पार्हवीरम्) स्पार्हा अभिकाङ्क्षिता वीरा यस्मिन् (यूयम्) (ऋषिम्) वेदार्थविदम् (अवथ) रक्षथ (सामविप्रम्) सामसु मेधाविनम् (यूयम्) (अर्वन्तम्) प्राप्नुवन्तम् (भरताय) धारणपोषणाय (वाजम्) वेगान्नविज्ञानादिकम् (यूयम्) (धत्थ) (राजानम्) न्यायविनयाभ्यां प्रकाशमानम् (श्रुष्टिमन्तम्) श्रुष्टी प्रशस्तं क्षिप्रकरं यस्मिँस्तम् ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सुसहायेन श्रीर्विद्वांसः सेना राजा च धर्त्तव्याः ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी उत्तम साह्याद्वारे लक्ष्मी, विद्वान, सेना व राजा यांचा स्वीकार करावा. ॥ १४ ॥